डिबिया
बृजमोहन ( मोहन मेरठी )
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घर के दरवाज़े पर दोनों तरफ़ बने आलों में से एक में हर शाम को एक डिबिया जलती थी। वही डिबिया जो तिहत्तर साल की मंगलो ने अपने हाथों से बनायी थी, कूड़े में फैंकी गयी छोटी शीशी जिसका ढक्कन ऐल्यूमिनीयम का था, उठा लायी थी मंगलो। सोचा था एक डिबिया घर केअंदर जलती ही है, एक और हो जाएगी तो दरवाज़े के बाहरी आले में रखेगी तो गली में भी थोड़ा उजाला हो जाएगा। मंगलो का छोटा सा घर पीली मिट्टी से पुता हुआ था, और चार दीवारें घर के छप्पर को थामे हुई थी। लकड़ी का पुराना दरवाज़ा जो पतासे की कीलों से बना हुआ था, के बाहर ही गली का मोड़ था जिसमें उजाला करने की चाहत में, कूड़े से वो छोटी काँच की शीशी उठा लायी थी मंगलो। सड़क से क़रीब अस्सी किलोमीटर दूर बसा था मंगलो का छोटा सा मौजी नामक गाँव जिसमें क़रीब तीस घर थे। सड़क के पास बसे गावों में बिजली थी जो पूरे दिन में तक़रीबन आठ घंटे तक आ ही जाती थी। मंगलो के दोनो बेटे मोहक और सुबल बिजली के चलते मौजी गाँव छोड़के सड़क के किनारे बसे गाँव तारपुर में अपने-अपने परिवारों के साथ आके बस गए थे। मंगलो का मौजी से प्यार, जहाँ वो शादी कर के मोहक और सुबल के पिता के साथ सात फेरे लेके आयी थी, उसे छोड़ने नहीं दे रहा था, इसीलिए बेटों के समझने के बाद भी वो मौजी में ही रहना चाहती थी। मौजी का उसका घर उसे जान से भी प्यारा था तभी तो इतनी उम्र में भी अकेली ही रहती थी बिना अपने बेटों के, क्योंकि मंगलो के पति का बीमारी से देहांत हुए काफ़ी साल हो गए थे।
महीने में एक बार ज़रूर जाती थी मंगलो अपने बेटों और पोते-पोती से मिलने और गाँव से आटे का हलवा बनाके ले जाती थी अपने पोते-पोती के लिए। कभी-कभी गाजर का हलवा भी ले जाती थी होली और दिवाली जैसे त्योहारों पर। सभी का कहना था कि हलवा मंगलो से अच्छा कोई नहीं बना सकता था और इसी हलवे के कारण सामने रहने वाले हरिया के बेटे कृष्णा जो तक़रीबन सोलह साल का था, से अच्छी भली दोस्ती हो गयी थी। कृष्णा ही था जो बूढ़ी मंगलो के पास आकार बैठता था और मंगलो की उसकी बचपन से लेकर अब तक की बातें और कहानियाँ सुनता रहता था वो भी सिर्फ़ एक हलवे के निवाले के लिए। कृष्णा प्यार से मंगलो को दादी बुलाता था और उसकी दादी उसे बिटवा। दादी का बिटवा ही था जो दादी के लिए सरकारी नल से पानी लाके देता था और घर के बाक़ी सारी कामों में भी मदद करता था। कृष्णा दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था और हमेशा स्कूल से आते ही मंगलो से मिलने जाता था, आख़िर बिटवा और दादी की दोस्ती ही ऐसी थी जिसमें प्यार था, हलवा था और अपनापन था।
मंगलो के पास एक बकरी थी जो दरवाज़े के बाहर गड़े एक छोटे से खूँटे से बंधी रहती थी जिसे कृष्णा प्यार से राधा बुलाता था और उसके पालन-पोषण में दादी की मद्दत करता था। कृष्णा ही उसे कभी-कभी जंगल घुमा लाता था और राधा भी छोटे पेड़ों के पत्ते बड़े चाव से खाती थी। राधा पत्ते खाती रहती थी और कृष्णा बैठे-बैठे राधा से बात करता रहता था क्योंकि कृष्णा की राधा से दोस्ती गली में रहने वाले हम-उम्र कल्लू से ज़्यादा थी। कल्लू राधा को बहुत परेशान करता था जो कृष्णा को पसंद नहीं था जैसे कि कल्लू बकरी की पीठ पर बैठ के टिक-टिक करके उसे चलता था। राधा उसका बोझ नहीं उठा पाती थी फिर भी दो चार क़दम चलके गिर जाया करती थी। कृष्णा की कल्लू से कई बार लड़ाई भी हो गयी थी इस बात को लेके, क्योंकि राधा उसकी दोस्त ही नहीं परिवार भी थी जिसके दूध की चाय बना के मंगलो उसे पिलाती थी।
पढ़ने में तो कृष्णा गाँव का सब से होनहार लड़का था पर उसकी छोटी बहन लाली भी बहुत अच्छे से अपनी पढ़ाई करती थी जो आठवीं की पढ़ाई कर रही थी। लाली हमेशा अकेली ही खेलती थी क्यों कि कृष्णा या तो उसकी दादी के पास होता था या अपनी राधा के साथ। वैसे शाम में दोनो साथ ही बैठ के पढ़ते थे वो भी एक डिबिया से जो हरिया ने उनके पढ़ने के लिए बनायी थी। जिसकी तरफ़ डिबिया होती उसको अच्छे से दिखायी देता और दूसरे को थोड़ा कम, तो वो दोनो डिबिया को एक दूसरे की तरफ़ खींचते रहते और लड़ते रहते थे। गाँव में बिजली ना होने की कमी का असर उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता था पर कृष्णा अपनी लगन का पक्का था तभी तो अपनी कक्षा का मॉनिटर भी बन गया था। उसका स्कूल गाँव से दस किलोमीटर दूर नंदपुर में था, जहाँ दोनो भाई बहन पढ़ने जाते थे।
कृष्णा की दसवीं की परीक्षा आने वाली थी तो लाली हमेशा उसे चिड़ाती रहती थी कि अब पास होके दिखाना! क्योंकि दसवीं की बोर्ड की परीक्षा होती थी जिसका सेंटर दूसरे स्कूल में पड़ता था जो काफ़ी दूर होता था उनके स्कूल से। कभी-कभी खेल खेल में दोनो एक दूसरे से पूछा करते थे कि वो पढ़ लिखकर क्या बनेंगे। वो बस एक ही बात कहता था कि उसे अच्छा नहीं लगता मंगलो का यूँ अकेले रहना बिना उसके परिवार के और इसकी वजह है बिजली जिसके कारण उसके बेटे उससे दूर रहते है इसलिए वो बड़ा होके एक बिजली का खम्बा लगवाएगा ताकि उसके गाँव में भी बिजली आ सके और मंगलो के बेटे उसके पास आके रहे और उसकी देखभाल करे। छोटी उम्र में ही बड़ी बातें करने लगा था कृष्णा और ये सब था उसकी दोस्त मंगलो के लिए उसका दादी-पोते जैसा प्यार।
शाम में टहलते हुए रास्ते में कूड़े पर जो शीशी मंगलो को मिली थी उसने उसे लाकर घर में ताख पर रख दिया। सोचा कल सुबह कृष्णा को दिखाऊँगी और नई डिबिया बनाऊँगी। सुबह उठके, काँच की शीशी हाथ में लिए, रोज़ की तरह कपड़े पहने, लाल रंग का घाघरा, सफ़ेद रंग की क़मीज़ और हल्के लाल रंग का ओन्ना सर पर रखे अपने दरवाज़े पर खड़ी मंगलो ने सामने से कृष्णा को आवाज़ लगायी - “कृष्णा, बिटवा इधर तो आ!”
“क्या हुआ दादी?”- कृष्णा दोड़ते हुआ आया।
“ये देख मुझे ख़ाली शीशी मिली है”- मंगलो ने कृष्णा को ख़ाली शीशी दिखाते हुए कहा।
“इसका क्या करोगी दादी?”- कृष्णा ने शीशी को देखते हुए बोला।
“तुझे पता है ना कि मेरे पास एक ही डिबिया है जो मैं रात होने पर घर के अंदर जलती हूँ”- मंगलो ने हाथ हिलते हुए कहा।
“अच्छा! दूसरी डिबिया बनाओगी तुम”- कृष्णा ने समझते हुए कहा।
“हाँ सही समझा! देख इसे मैं इस आले में बाहर रखा करूँगी ताकि बाहर भी उजाला रहेगा रात में और मैं तेरी राधा को भी देख लिया करूँगी, ठीक है ना!”- मंगलो ने आले की तरफ़ इशारा करते हुए, शीशी को वहाँ रखते हुए कहा।
“सही है दादी, बाहर भी उजाला और अंदर भी”- कृष्णा ने मुस्कुराते हुए कहा।
“हूँ !!! अच्छी है ना शीशी!”- मंगलो ने ख़ुश होते हुए शीशी देखते हुए कहा।
“तू देखना दादी एक दिन मैं यहाँ बिजली लगवाऊँगा तो हर तरफ़ उजाला होगा गाँव में!”- गर्दन हिलते हुए कृष्णा ने दादी से कहा।
“अच्छा जी! बड़ी-बड़ी बातें करने लगा है।”- कृष्णा के बालों को हाथ लगाते हुए मंगलो ने कहा।
“सच में दादी और फिर मुझे डिबिया से नहीं पढ़ना पड़ेगा बल्कि बल्ब में पढ़ाई करूँगा शहर के जैसे”- पूरे आत्म विश्वास के साथ कृष्णा ने जवाब दिया।
“अब बातें ही करता रहेगा या डिबिया बनाने के लिए क़त्तर भी लाएगा”- कृष्णा को शीशी दिखाते हुए मंगलो ने कहा।
“अभी लाता हूँ ढूँढ के ! तब तक तू इसके ढक्कन में छेद करले और मिट्टी का तेल भर ले इसमें”-कृष्णा ने मुड़ते-मुड़ते क़त्तर को लाने के लिए जाते हुए कहा।
डिबिया, किसी भी शीशी के ढक्कन में छेद करके और उसमें एक छोटी सी क़त्तर लगाके बनायी जा सकती थी जो मिट्टी के तेल से जलती थी। इसका उजाला बहुत ज़्यादा तो नहीं होता था पर हाँ घर में उजाला बना रहता था जैसे रात में एक छोटा सा चाँद लगा हो। डिबिया के जलने पर लौ से धुँआ निकलता था जिसके कारण आले में ऊपर की ओर अंदर काला हो जाया करता था। मंगलो इस धुएँ से अपने लिए काजल बनाती थी। जैसे ही आले में धुँआ इकट्ठा होकर एक परत सा बन जाता था मंगलो उस परत को उतार कर एक मिट्टी के चिराग़ में रख लेती थी और जब भी शहर या बेटों से मिलने जाती उसका काजल बनाके आँखों में लगाती थी। मंगलो के राशन कार्ड पर हर महीने पाँच लीटर मिट्टी का तेल मिलता था जो कृष्णा ही लाता था सरकारी दुकान से, जिसका मूल्य काफ़ी कम होता था।
“ये ले दादी, ढूँढ लाया मैं तेरी डिबिया के लिए क़त्तर”- मंगलो की ओर क़त्तर को बढ़ाते हुए कहा। मंगलो पतासे की कील से ढक्कन में में छेदकर रही थी और ढक्कन पर कील लगा के एक ईंट के टुकड़े से चोट मार रही थी। मंगलो ने छेद कर के कृष्णा की तरफ़ देखा और क़त्तर को पकड़ते हुए बोली - “अरे वाह! ले आया मेरा बिटवा क़त्तर”।
“जैसी डिबिया में लगती है वैसी ही लाया हूँ, पिताजी ने जब हमारी पढ़ने वाली डिबिया बनाई थी तो ये क़त्तर बच गयी थी”- क़त्तर की ओर इशारा करते हुए कहा।
“ले तू शीशी में मिट्टी का तेल डाल, तब तक मैं क़त्तर को ढक्कन में लगाती हूँ और हाँ, अंदर से माचिस की डिब्बी भी ले आना इसे जलाने के लिए”- शीशी कृष्णा को देते हुए दादी ने कहा।
डिबिया बन के तैयार हो गयी थी और जला के भी देखली थी। दोनों बहुत ख़ुश थे डिबिया बनाके, लग रहा था जैसे दोनों ने कुछ नया बना डाला हो। राधा को रोज़ की तरह चारा डाल के मंगलो अपने लिए खाना बनाने अंदर चली गयी और कृष्णा अपने स्कूल जाने की तैयारी करने के लिए। जाते-जाते कृष्णा ने शाम में आटे का हलवा खाने का भी तय कर लिया था अपनी प्यारी दादी से, आख़िर डिबिया बनवाने में जो मद्दत की थी। दोनों का ऐसे ही छुट-पुट के कामों में लगे-लगे दिन निकल जाता था। रोज़ की तरह आज भी शाम में स्कूल से आने और खेल-कूद करने के बाद कृष्णा और लाली डिबिया लगा के पढ़ रहे थे। कभी डिबिया को लाली अपनी ओर खींचती तो कभी कृष्णा अपनी ओर खींचता। इसी खींचा-तानी में डिबिया गिर गयी और कुछ मिट्टी का तेल भी किताब पर लग गया।
“ये क्या किया तूने? मेरी किताब पर ही तेल गिरा दिया”- डिबिया को उठाते हुए कृष्णा ने लाली पर चिल्लाते हुए कहा।
“और खींच ले डिबिया अपनी ओर!”- लाली ने जीभ निकाल के चिढ़ाते हुए कहा।
कृष्णा अपनी किताब लेके वहाँ से उठके बाहर आ गया। बाहर गली में उजाला था क्योंकि मंगलो ने अपनी नई डिबिया आले में जलाके लगायी हुई थी। कृष्णा ने मुस्कुराते हुए डिबिया की तरफ़ देखा और जाके मंगलो के दरवाज़े पर ही बैठके पढ़ने लगा। नई डिबिया की लौ मानो जैसे चाँद से सूरज बन गयी थी कि उसका उजाला चारों ओर फैल रहा था। कृष्णा ने अच्छे से अपनी पढ़ाई की और ज़्यादा रात होने पर घर आके सो गया। मंगलो की नई डिबिया और राधा का साथ उसे इतना भाया कि उसने ठान ली अब यही आके पढ़ लिया करेगा और लाली भी परेशान नहीं करेगी।
धीरे-धीरे वक़्त गुज़रता गया और कृष्णा की परीक्षा नज़दीक आने लगी। उसने बहुत मेहनत की थी आख़िर मंगलो की नई डिबिया उसके जीवन का हिस्सा जो बन गयी थी। कुछ महीनो में परीक्षा भी हो गयी और परिणाम भी आ गया। आख़िर कार कृष्णा ने अच्छे अंकों से दसवीं पास कर ली थी। ख़ुशी में चिल्लाते हुए हाथ में स्कूल से मिली सूचना को लेके कृष्णा सीधे अपनी दोस्त दादी के पास गया।
“ये ले दादी, तेरी डिबिया ने कमाल कर दिया, मैं पास हो गया”- ख़ुशी में चिल्लाते हुए कृष्णा ने मंगलो से कहा।
“ख़ुश रह मेरा बिटवा, ऐसे ही तरक़्क़ी कर, ख़ूब नाम कमा और शहर जाके बड़ा आदमी बन जा”- मंगलो ने कृष्णा को दोनों हाथों से पुचकारते हुए कहा।
“हाँ दादी मै पढ़के और बड़ा आदमी बनके एक दिन यहाँ खम्बा लगवाऊँगा, तब तू देखना तेरी डिबिया बिजली का बल्ब बन जाएगी”- हँसते हुए आत्मविश्वास के साथ कृष्णा ने कहा।
“इसी ख़ुशी में तेरे लिए तेरा पसंदीदा आटे का हलवा बनाती हूँ, बैठे खाके जाना, लाती हूँ बनाके”- अपनी छोटी सी रसोई की तरफ़ बढ़ते हुए मंगलो ने कहा।
आगे की पढ़ाई के लिए कृष्णा को सड़क के किनारे बसे गाँव कमोली में अपने मामा के यहा जाना था। उसको बस एक ही बात बार-बार सता रही थी कि उस की मंगलो और राधा का कौन ख़याल रखेगा। उनकी याद उसे बहुत आएगी और हलवा तो बहुत जो मंगलो उसके लिए बनाती थी। जीवन में आगे बढ़ने के लिए कृष्णा अपनी दादी और राधा से मिलके कमोली चला गया और अपना वादा भी साथ ले गया जो दादी से किया था कि गाँव में बिजली का खम्बा लगवा के मंगलो को बल्ब जलाके दिखाएगा।
कुछ साल बीत गए, मंगलो की तबियत भी नाज़ुक होने लगी थी। एक दिन तीन-चार सरकारी आदमी मौजी में बिजली लगाने के लिए सर्वे करने आए। गाँव में चारों ओर घूम-घूम के देख रहे थे कि कहाँ-कहाँ पर खम्बा लगेगा। लाली भागते हुए मंगलो के पास आयी और बोली - “देख दादी वो बिजली वाले लोग आए है गाँव में और देख रहे है कि कहाँ पर और कितने खम्बें लगायेंगे”। “कृष्णा आया है क्या? बिजली लगाने”- बिस्तर पर लेटी मंगलो ने लाली से पूछा। “नहीं दादी, कृष्णा तो शहर में है ये तो सरकारी आदमी है बिजली वाले”- लाली ने बाहर की ओर इशारा करते हुए कहा।
कृष्णा ने पढ़-लिखकर शहर में एक अच्छी नौकरी पा ली थी और उसी ने बिजली विभाग को पत्र लिखकर मौजी गाँव में बिजली पहुँचाने का आवेदन किया था जिसकी वजह से आज गाँव में बिजली विभाग से लोग आए थे। एक महीने बाद बिजली के खम्बें पूरे गाँव में लग गए थे अब इंतज़ार था तो बस बिजली के छोड़े जाने का। आज के दिन गाँव में बिजली आने वाली थी और यही सुनिश्चित करने के लिए कृष्णा छुट्टी लेकर गाँव आया था। लेकिन आते ही उसे ख़बर लगी कि उसकी दोस्त मंगलो आज सुबह ही गुज़र गयी थी।
गाँव आते ही कृष्णा सीधा मंगलो के घर आया जहाँ गाँव वाले खड़े थे। मंगलो के बेटे और परिवार मंगलो को घेरे खड़े थे जो अब जा चुकी थी। कृष्णा अपनी दादी को निहार रहा था और याद कर रहा था मंगलो के साथ बीते उसके बचपन को कि तभी खम्बों पर लगे सरकारी बल्ब जल उठे और गाँव बिजली की चमक से दमक उठा। गाँव वाले बिजली के आने पर बहुत ख़ुश थे तो मंगलो के जाने पर दुखी। आख़िरकार गाँव में बिजली की रोशनी ने क़दम रख दिया था पर जिसको कृष्णा दिखाना चाहता था उसको दिखा ना पाया।
“देख दादी! तेरे घर के बाहर बिजली का खम्बा लगा है और बल्ब कैसे दमक रहा है!”- कृष्णा ने आँख में आँसू लिए भरी आवाज़ में शांत लेटी मंगलो की ओर देखते हुए कहा।
अब कोई डिबिया उस आले में नहीं रखी जाएगी और नाही आने वाली पीढ़ी उस डिबिया को देख पाएगी। नाही कृष्णा के बच्चे ये समझ पाएँगे की कैसे कृष्णा ने अपनी रातें उस एक डिबिया की लौ के तले गुज़ारी है और आज वो सक्षम है तो सिर्फ़ उसकी प्यारी दोस्त मंगलो की वजह से जिसे वो प्यार से दादी कहता था और जिसका वो बिटवा था।
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