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प्रेमगीत

बृजमोहन ( मोहन मेरठी )
 

हंस पत्रिका, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रकाशित - PDF)

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कमरा नंबर 47, जो हॉस्टल के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही, एकदम से सीधे हाथ पर मुड़कर, सीधे जाकर सबसे अंतिम वाली सीढ़ियों से चढ़कर, प्रथम तल पर इन सीढ़ियों के अंत होते ही, पास के बने वाशरूम के ठीक सामने है | चौधरी चरण सिंह विश्विद्यालय मेरठ, परिसर के आर. के. सिंह. हॉस्टल का ये कमरा हम सब के लिए ऐसे मायेने रखता है जैसे हमारा खुद का घर हो | वैसे तो कुछ ही महीने हुए थे और ये परिवार भी कुछ ही महीनो में, मेरे हृदय में ऐसे बस सा गया था जैसे सारे के सारे मेरे सगे बड़े भाई हो | हॉस्टल में सीनियर को सर या डॉक्टर साब कहने का रिवाज़ था जो हम सब मानते थे क्योकि कल को हम भी तो सीनियर होंगे ना | नहीं, मैं बिलकुल भी इस कमरे में नहीं रहता था, बल्कि मेरा कमरा तो N-3 था | वही ! जो चार रूम बाद में बने थे, ये प्रथम और अंतिम तल पर ही है, कमरा नंबर 47 के विपरीत दूसरे छोर पर | 
 

23 दिसम्बर 2004, ये तारीख मुझे बिलकुल याद है क्योकि आज ही चौधरी चरण सिंह के जन्मोत्सव पर विश्वविद्यालय के नेता जी सुभाषचन्द्र बोष सभागार में बहुत बड़े वार्षिक राष्ट्रीय कवि सम्मलेन का आयोजन हुआ था | भिन-भिन जगहों से कविगण आये थे | वाह ! अदभुत काव्य पाठ !

“हैं ना सर” – मैंने अदभुत कहकर मेघपाल सर की ओर हल्की बोंह उठाते हुए पूछा |

“तुम तो अभी आये हो डिअर, यहाँ हर साल होता है ऐसा बड़ा प्रोग्राम या तो कवि सम्मलेन या कुछ और!” – मेरी तरफ देखते हुए हलकी मुस्कान के साथ उन्होंने मुझसे कहा |

“सर उनका नाम क्या था जिन्होंने वो प्यार वाली कविता गायी थी” – मैंने रूम में बैठे सभी की तरफ देखते हुए पूछा |

“कमाल थी वो तो ! और कितने आराम से, धीरे से, मगन होक सुनाई, मज़ा आ गया !” – मेरे एक वर्ष सीनियर वेद सर ने तारीफ़ में हाथ उठाते हुए कहा |

“आपको आती है वो कविता सर ?” – वेद सर को आश्चर्य से देखते हुए जानने के लिए मैंने पूछा |

“हाँ वो थी ना कि...... एक बार जीवन में .....” – याद करते करते वो जैसे ही गुनगुनाने लगे कि  तभी मेगपाल सर ने बीच में टोकते हुए पूछा – “ अरे यार ! नाम क्या था उनका ?”

“उनका नाम सर ........आशीष .....आशीष .....देवल था शायद !” मैंने याद करते हुए कहा |

“नहीं-नहीं, आशीष देवल नहीं, इसका उल्टा था शायद” – मेगपाल सर ने झट से कहा |

“आप सही कह रहे हैं सर, उनका नाम आशीष देवल नहीं है, उनका नाम देवल आशीष है” – वेद सर ने बड़े विश्वाश के साथ मेरी तरफ देखते हुए कहा |

“सही है सर, हाँ यही है .... देवल आशीष” – मैंने गर्दन को हिलाते हुए और ऊँगली से मेघपाल सर की ओर इशारा करते हुए कहा |

“अरे सर सुनाओ ना ! क्या पंक्ति थी वो जब शुरुवात में कविता शुरू हुई थी ?” – मैंने वेद सर को सुनाने के लिए कहते हुए ख़ुशी के साथ कहा |

“एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये .... एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये... एक बार जीवन में ....” – वेद सर गुनगुनाने लगे |

“सर क्या यही गाते रहोगे ? शुरुवात से सुनाओ ना, बड़ी मज़ेदार थी !” – वेद सर को टोकते हुए मैंने कहा |

“इसे कौनसी याद है” – खिड़की के पास बैठे हरि प्रताप सर ने वेद सर की ओर हँसते हुए कहा |

“हाँ तो ! तुझे याद है? तो तू सुनादे” – वेद सर ने फट से अपने दोस्त की खिचाई करते हुए कहा |

“याद तुममें से किसी को नहीं है और बातें बना रहे हो” – मेगपाल सर ने हम सब को कहा |

“मुझे सर कविता तो याद नहीं पर उसका तरन्नुम याद है” – मैंने मेगपाल सर को कहा और गुनगुनाने लगा.....
 

“ला ला .. ला ला ला ला ...ला ला ला ...ला ला ला....

ला ला .. ला ला ला ला ...ला ला ला ...ला ला ला....

ला ला .. ला ला ला ला ...ला ला ला ...ला ला ला....

ला ला .. ला ला ला ला ...ला ला ला ...ला ला ला....

तो... ला ला .. ला ला ला ला ...ला ला ला ...ला ला ला....

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये

एक बार जीवन में .......प्यार करलो प्रिये”
 

“वाह ! क्या बात है पूरी कविता... ला ला ला ...में ही ख़त्म कर दी” – वेद सर ने हँसते हुए मुझसे कहा |

“अब सर मुझे याद थोड़ी है सारी, मैंने लिखी थोड़ी है जब वो सुना रहे थे, मैं तो बस सुन रहा था” – मैंने वेद सर को जवाब देते हुए कहा |

“कोई नहीं याद करले भाई, जब याद आ जाए तब सुना देना” – हरि सर ने मेरी ओर देखते हुए हल्की मुस्कान के साथ कहा |

“याद आ गयी तो लिख लूँगा, पक्का !” – मैंने झट से कहा और बिस्तर से उठकर दरवाजे की ओर बढ़ने लगा |

मैं गुनगुनाते हुए और वही ... ला ला ला ... करते हुए दरवाजे को पर कर पास वाले वाशरूम के बहार लगे शीशे में अपने को देखकर, आँखे सिकोड़ते हुए याद करने की कोशिश करने लगा | सच कहूँ तो मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था | वो कविता थी या गीत, पर जो भी था, दिल को छू लेने वाले शब्द थे | अपने बालों में हल्का पानी लगाके मैं अपने रूम की ओर चल दिया |

रूम का दरवाजा खोलते ही, उलटे हाथ की ओर दीवार पर लिखा एक बड़ा सा नाम मुझे देख रहा था | वैसे तो ये नाम मैंने ही लिखा था | आखिर एक तरफ़ा प्यार और चाहत में आप कर भी क्या सकते है | मैं मेरे बिस्तर पर लेट आँखें दीवार पर लिखे नाम पर टिका कर देवल आशीष को गुनगुनाते हुए महसूस करने की कोशिश कर रहा था शायद उनके उस गीत की पंक्तिया याद आ जाये जो मेरे दिल में गूँज रही थी | शाम से होते-होते रात हो गयी पर ना वो पंक्तिया सही से याद आ पायी और ना ही नींद | आखिर कुछ तो जादू था उन शब्दों में जो मुझको मेरी अन्दर की आवाज़ से प्रतीत हो रहे थे | बार-बार वही पंक्ति दोहरा रहा था – “एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ....... एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये” |
 

आज की तरह ना मेरे पास स्मार्ट-फोन था और ना ही इन्टरनेट की सुविधा | स्मार्ट-फोन तो बहुत दूर की बात है तब तो मेरे या मेरे करीबी दोस्तों में से किसी के पास भी फोन नहीं था | हाँ, विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में इन्टरनेट की सुविधा थी पर मैंने आजतक ई-मेल भी नहीं किया था | आज की बात कुछ और है |

अचानक ना जाने क्या सूझा कि मैं कॉपी और पेन उठाकर अपने बिस्तर पर बैठ गया | उस गीत के शब्द मेरे अंतरमन में जैसे घूम रहे थे और मैं वो शब्द कॉपी पर लिख रहा था | इन शब्दों से ना तो वो कविता बन रही थी और ना ही वो तरन्नुम आ पा रहा था | निराश भी था और उत्साहित भी | ना जाने कब रात अपने चरम पर पहुँच गयी, पता ही ना चला | अब तक मैंने कुछ फैसला अपने आप से कर लिया था और वो पेन उस कॉपी पर कुछ लिखने लगा था |

सुबह होते ही मैं वेद सर के रूम की ओर झट से पहुँच गया जो क्षितिज तल पर था | वेद सर अपने बिस्तर पर ही थे और जागे हुए प्रतीत हो रहे थे |

“सर, वेद सर, सुनो मैंने लिख ली” – ख़ुशी के साथ मैंने कॉपी को आगे करते हुए कहा |

“क्या लिख दिया?”- हल्की हंसी के साथ उन्होंने मेरी तरफ देखा |

“अरे सर जी ! पूरी रात काली कर दी पर मैंने हार नहीं मानी, कहो तो सुनाऊ”-मैंने बड़े ही विश्वास के साथ कहा |

“सुना दे भाई, वैसे भी मेरे कहने से रुक थोड़ी जायेगा,....सुना”- उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा |

“पहले एक बात तो बता दूं सर कि ये वो नहीं है जो कवि ने सुनाई है बल्कि मैंने उनके तरन्नुम पर अपने शब्दों को लिखा है और हाँ ! उनकी वो एक पंक्ति मैंने ली है जो हम सबको याद है” – थोडा विस्तार देते हुए मैंने कहा |

“कौन सी पंक्ति?”- वेद सर ने पूछा |

“वही सर !..एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये”- बड़ी ही ख़ुशी के साथ मैंने कहा |

“ठीक है अब सुना भी दे”- हल्की उत्सुकता के साथ वेद सर ने मुझे सुनाने को कहते हुए कहा |

“हाँ सर”- कहते हुए मैंने वो तरन्नुम याद करते हुए अपनी लिखी पंक्तियाँ सुनानी शुरू कर दी |
 

“स्वपन सलोने दिखाओ तो नयन को

नयनों में भर दो प्रेम के तरल को

तरल बना दो इस हृदय प्रबल को

प्रबल धरा में खिला दो कमल को

तो कमल से अधरों का पान करलो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

“ये तूने लिखी है ?”- बड़े ही आश्चर्य के साथ मेरी तरफ देखते हुए वेद सर ने पूछा |

“हाँ सर ! कैसी लगी ?”- मैंने जानने के लिए पूछा |

“बस ये ही लिखी है ?”- वेद सर ने मेरी तरफ देखते हुए पुछा |

“हाँ सर और भी है आगे ....”- ख़ुशी के साथ मैंने कहा |

उनके चेहरे से लग रहा था कि उनको मेरी लिखी पंक्तियाँ पसंद आयी है | चूँकि वो पहले हमें कई बार किसी अन्य कवि की एक कविता अनेकों बार सुना चुके थे तो जाहिर है कि अगर इन्हें पसंद आ गयी तो बाकी को भी आयेगी | यही मन में सोचते हुए मैंने अगली पंक्तियाँ पढ़ी |
 

“शीतल से तन में है भानु की दहक सी

दहक ये उर में मुरली की चहक सी

चहक उपवन में जैसे कोयलिया गाई हो

गाये गीत दिल ने जैसे मीरा ही समाई हो

तो मीरा के ही रूप का श्रृंगार भरलो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

“अरे वाह ! क्या बात है, शब्द बड़े ठीक लगाये है तूने”- वेद सर ने ख़ुशी के साथ प्रशंसा करते हुए कहा |

“सही बताओ सर, अच्छी लगी आपको?”- मैंने मुस्कुराते हुए पूछा |

“बहुत बढ़िया है डिअर, लिख-लिख और लिख आगे, मज़ेदार है | मुझे तो अच्छी लगी सच में |”-उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा |

“पहले सर आगे की भी तो सुनलो !”- मैंने कॉपी की तरफ देखते हुए कहा |

“अच्छा ! और भी लिखी है ? तो सुना पूरी”- बिस्तर पर हलके से बैठते हुए मेरी अगली पंक्तिया सुनने के लिए मेरी ओर हाथ से इशारा करते हुए उन्होंने कहा |

कुछ ना कहते हुए मैंने अगली पंक्तियाँ पढ़नी शुरू कर दी |
 

“प्रेम के प्रकाश में अँधेरा तो विफल है

विफल है मजनूं पर प्रेम हर पल है

पल भर की ये ज़वानी चंचल है

चंचल मन में मची सी हलचल है

तो हलचल तन की स्वीकार करलो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

“आह ! क्या बात है डिअर, बड़ी सही लिखी है”- प्रशंसा के स्वर में उन्होंने मुझसे कहा |

“सर मेरी पहली कविता है !”- अपने आप को उत्साह देते हुए मैंने कहा और अगली पंक्तियाँ पढ़नी शुरू दी |
 

“प्रेम की ये ज्योत प्रेम दीप में जलाओ तुम

दीप की किरणों से मन मंदिर महकाओ तुम

मंदिर के प्रेम शंख की यही आवाज़ है

प्रेम बिन ज़िन्दगी रह जाती एक राज़ है

तो राज इस दिल पर बार-बार करलो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

मैं गीत गा ही रहा था कि दरवाजे से हरि सर ने प्रवेश किया और वेद सर की ओर देखते हुए कहा – “नाश्ता करने नहीं चलना है ?”

“हाँ चलते है, पहले इसकी कविता तो सुनले, सारी रात में बैठके लिखी है”- मेरी ओर इशारा करते हुए कहा |

“सर सुनो और बताओ, कैसी है !”- उनको बैठने के लिए कहते हुए मैंने कहा और आगे की पंक्तियाँ पढ़ी |
 

“यौवन सजा दो अलकों के चमन में

चमन खिला दो ग्रीष्म तन के मिलन में

मिलन करदो इस उजली धूप का

धूप सा उज़ाला चन्दन के रंग रूप का

तो रूप की तन से आँखें चार करलो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

“ये तूने ही लिखी है ! या देवल आशीष की सुना रहा है?”- हरि सर ने आश्चर्य के साथ मुझसे पूछा |

“लड़के ने रात में जाग कर लिखी हैं | तरन्नुम देवल आशीष का ही है पर सही में शब्दों का इस्तेमाल तो लाजवाब किया है”- वेद सर ने मेरी ओर से उत्तर देते हुए कहा |

कविता को गाते हुए जितनी ख़ुशी मुझे थी उससे कही ज्यादा मुझे ख़ुशी इस बात की थी की इनको मेरी लिखी पंक्तियाँ बहुत पसंद आयी थी | चेहरे पर ख़ुशी और खुद पर गर्व के साथ मैंने आगे की पंक्तियाँ पढ़ी |
 

“प्रेम बिन कैसे तर जाओगी जीवन में

जीवन अपार फंस जाओगी भंवर में

भंवर हृदय में फूल बन जो समाओगी

फूल सी कोमलता हर पल यहाँ पाओगी

तो हर पल की ये मुस्कान भरलो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

हरि सर ने ये पंक्तियाँ सुनने के बाद, मुझे कविता शुरू से सुनाने को कहा जो उनसे छूट गयी थी | मैंने फिर से सारी कविता उसी तरन्नुम में सुनाई जिस तरन्नुम में कवि देवल आशीष ने सुनाई थी | जितनी बार भी मैं सुनाता उतनी ही बार ये मुझे याद होती जाती | कमरे से निकल कर हम नाश्ता करने गये और वहां पर मिले दूसरे सीनियर और दोस्तों से भी ये पंक्तियाँ सांझा की | कई दिनों तक मैं ये गाता रहा और कवि देवल आशीष जी को हमेशा याद करते हुए सबको सुनाता रहा | सभी का कविता के प्रति रुझान सकारात्मक था एवं मुझे और लिखने के लिए प्रेरित करते |

कभी-कभी लगता था कि अगर मैं कवि देवल आशीष से मिला तो उनको ये ज़रूर सुनाऊंगा | जिनकी वजह से मैं ये कविता लिख पाया था | मेरी पहली कविता के बाद मैंने कई सालों में जब भी समय मिला, सौ से ज्यादा कवितायेँ लिखी जिनको मैं आज सुनाता हूँ और गाता हूँ कुछ अपने नए तरन्नुमों के साथ |
 

इन्टरनेट के माध्यम से पता चला कि गीतकार कवि देवल आशीष का निधन 4 जून 2013 को लखनऊ में हो गया | इस ख़बर के साथ मेरा उनसे मिलने का सपना भी समाप्त हो गया पर उनकी कवितायें और गीत आज भी मेरे साथ है | कवि देवल आशीष को मेरी कवितायेँ ही मेरी सच्ची श्रद्धांजलि है | आज भी जब ये प्रेम गीत गाता हूँ तो इस कवि की आवाज़ मेरे होंठों से सुनाई देती है और जब भी इस गीत को पढ़ता हूँ तो नयी पंक्तियाँ अपने आप जुडती चली जाती है |
 

“प्रेम में विरह की मुझे घेरे परछाई है

परछाई तन पर जैसे आत्मा समाई है

आत्मा ये प्यार वाली किसने जगाई है

जागते लोगो को दिया धोखा ही दिखाई है

तो धोखे वाली रात में प्रकाश भर लो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार करलो प्रिये ||”
 

*** इस एकलव्य का अपने गुरु को नमन ! शत-शत नमन !! ***

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